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सुषुम्ना मार्ग,कुंडली जागरण,

 सृष्टिके प्रारम्भमें ब्रह्माजीने इसी धारणाके द्वारा प्रसन्न हुए भगवान्‌से वह सृष्टिविषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलयकालमें विलुप्त हो गयी थी⁠। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी तब उन्होंने इस जगत्‌को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलयके पहले था ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠। वेदोंकी वर्णनशैली ही इस प्रकारकी है कि लोगोंकी ब़ुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामोंके फेरमें फँस जाती है, जीव वहाँ सुखकी वासनामें स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किंतु उन मायामय लोकोंमें कहीं भी उसे सच्चे सुखकी प्राप्ति नहीं होती ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠। इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह विविध नामवाले पदार्थोंसे उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजनीय हो⁠। अपनी बुद्धिको उनकी निस्सारताके निश्चयसे परिपूर्ण रखे और एक क्षणके लिये भी असावधान न हो⁠। यदि संसारके पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रमके यों ही मिल जायँ, तब उनके उपार्जनका परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। जब जमीनपर सोनेसे काम चल सकता है तब पलँगके लिये प्रयत्न करनेसे क्या प्रयोजन⁠। जब भुजाएँ अपनेको भगवान्‌की कृपासे स्वयं ही मिली हुई हैं तब तकियोंकी क्या