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सुषुम्ना मार्ग,कुंडली जागरण,

 सृष्टिके प्रारम्भमें ब्रह्माजीने इसी धारणाके द्वारा प्रसन्न हुए भगवान्‌से वह सृष्टिविषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलयकालमें विलुप्त हो गयी थी⁠। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी तब उन्होंने इस जगत्‌को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलयके पहले था ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠। वेदोंकी वर्णनशैली ही इस प्रकारकी है कि लोगोंकी ब़ुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामोंके फेरमें फँस जाती है, जीव वहाँ सुखकी वासनामें स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किंतु उन मायामय लोकोंमें कहीं भी उसे सच्चे सुखकी प्राप्ति नहीं होती ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠। इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह विविध नामवाले पदार्थोंसे उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजनीय हो⁠। अपनी बुद्धिको उनकी निस्सारताके निश्चयसे परिपूर्ण रखे और एक क्षणके लिये भी असावधान न हो⁠। यदि संसारके पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रमके यों ही मिल जायँ, तब उनके उपार्जनका परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। जब जमीनपर सोनेसे काम चल सकता है तब पलँगके लिये प्रयत्न करनेसे क्या प्रयोजन⁠। जब भुजाएँ अपनेको भगवान्‌की कृपासे स्वयं ही मिली हुई हैं तब तकियोंकी क्या आवश्यकता⁠। जब अंजलिसे काम चल सकता है तब बहुत-से बर्तन क्यों बटोरें⁠। वृक्षकी छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रोंकी क्या आवश्यकता ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। पहननेको क्या रास्तोंमें चिथड़े नहीं हैं? भूख लगनेपर दूसरोंके लिये हीशरीर धारण करनेवाले वृक्ष क्या फल-फूलकी भिक्षा नहीं देते? जल चाहनेवालोंके लिये नदियाँ क्या बिलकुल सूख गयी हैं? रहनेके लिये क्या पहाड़ोंकी गुफाएँ बंद कर दी गयी हैं? अरे भाई! सब न सही, क्या भगवान् भी अपने शरणगतोंकी रक्षा नहीं करते? ऐसी स्थितिमें बुद्धिमान् लोग भी धनके नशेमें चूर घमंडी धनियोंकी चापलूसी क्यों करते हैं? ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠।इस प्रकार विरक्त हो जानेपर अपने हृदयमें नित्य विराजमान, स्वतःसिद्ध, आत्मस्वरूप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्तभगवान् हैं, बड़े प्रेम और आनन्दसे दृढ़ निश्चय करके उन्हींका भजन करे; क्योंकि उनके भजनसे जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले अज्ञानका नाश हो जाता है ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠। पशुओंकी बात तो अलग है; परन्तु मनुष्योंमें भला ऐसा कौन है जो लोगोंको इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरकर अपने कर्मजन्य दुःखोंको भोगते हुए देखकर भी भगवान्‌का मंगलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगोंमें ही अपने चित्तको भटकने देगा? ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠। कोई-कोई साधक अपने शरीरके भीतर हृदया-काशमें विराजमान भगवान्‌के प्रादेशमात्र स्वरूपकी धारणा करते हैं⁠। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान्‌की चार भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠। उनके मुखपर प्रसन्नता झलक रही है⁠। कमलके समान विशाल और कोमल नेत्र हैं⁠। कदम्बके पुष्पकी केसरके समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं⁠। भुजाओंमें श्रेष्ठ रत्नोंसे जड़े हुए सोनेके बाजूबंद शोभायमान हैं⁠। सिरपर बड़ा हीसुन्दर मुकुट और कानोंमें कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ⁠।⁠।⁠९⁠।⁠। उनके चरणकमल योगेश्वरोंके खिले हुए हृदयकमलकी कर्णिकापर विराजित हैं⁠। उनके हृदयपर श्रीवत्सका चिह्न—एक सुनहरी रेखा है⁠। गलेमें कौस्तुभमणि लटक रही है⁠। वक्षःस्थल कभी न कुम्हलानेवाली वनमालासे घिरा हुआ है ⁠।⁠।⁠१०⁠।⁠। वे कमरमें करधनी, अँगुलियोंमें बहुमूल्य अँगूठी, चरणोंमें नूपुर और हाथोंमें कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं⁠। उनके बालोंकी लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं⁠। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिल रहा है ⁠।⁠।⁠११⁠।⁠। लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवनसे शोभायमान भौंहोंके द्वारा वे भक्तजनोंपर अनन्त अनुग्रहकी वर्षा कर रहे हैं⁠। जबतक मन इस धारणाके द्वारा स्थिर न हो जाय, तबतक बार-बार इन चिन्तनस्वरूप भगवान्‌को देखते रहनेकी चेष्टा करनी चाहिये ⁠।⁠।12।।

भगवान्‌के चरण—कमलोंसे लेकर उनके मुसकानयुक्त मुखकमलपर्यन्त समस्त अंगोंकी एक-एक करके बुद्धिके द्वारा धारणा करनी चाहिये⁠। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा⁠। जब एक अंगका ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोड़कर दूसरे अंगका ध्यान करना चाहिये ⁠।⁠।⁠१३⁠।⁠। ये विश्वेश्वर भगवान् दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं⁠। सगुण, निर्गुण—सब कुछ इन्हींका स्वरूप है⁠। जबतक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय तबतक साधकको नित्य-नैमित्तिक कर्मोंके बाद एकाग्रतासे भगवान्‌के उपर्युक्त स्थूलरूपका ही चिन्तन करना चाहिये ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠।

परीक्षित्! जब योगी पुरुष इस मनुष्यलोकको छोड़ना चाहे तब देश और कालमें मनको न लगाये⁠। सुखपूर्वक स्थिर आसनसे बैठकर प्राणोंको जीतकर मनसे इन्द्रियोंका संयम करे ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠। तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धिसे मनको नियमित करके मनके साथ बुद्धिको क्षेत्रज्ञमें और क्षेत्रज्ञको अन्तरात्मामें लीन कर दे⁠। फिर अन्तरात्माको परमात्मामें लीन करके धीर पुरुष उस परम शान्तिमय अवस्थामें स्थित हो जाय⁠। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠। इस अवस्थामें सत्त्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या है⁠। अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृतिका भी वहाँ अस्तित्व नहीं है⁠। उस स्थितिमें जब देवताओंके नियामक कालकी भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं? ⁠।⁠।⁠१७⁠।⁠। योगीलोग ‘यह नहीं, यह नहीं’—इस प्रकार परमात्मासे भिन्न पदार्थोंका त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थोंमें आत्मबुद्धिका त्याग करके हृदयके द्वारा पद-पदपर भगवान्‌के जिस परम पूज्य स्वरूपका आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेमसे परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान् विष्णुका परम पद है—इस विषयमें समस्त शास्त्रोंकी सम्मति है ⁠।⁠।⁠१८⁠।⁠।

ज्ञानदृष्टिके बलसे जिसके चित्तकी वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगीको इस प्रकार अपने शरीरका त्याग करना चाहिये⁠। पहले एड़ीसे अपनी गुदाको दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहटके प्राणवायुको षट्‌चक्रभेदनकी रीतिसे ऊपर ले जाय ⁠।⁠।⁠१९⁠।⁠। मनस्वी योगीको चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरकमें स्थित वायुको हृदयचक्र अनाहतमें, वहाँसे उदानवायुके द्वारा वक्षःस्थलके ऊपर विशुद्ध चक्रमें, फिर उस वायुको धीरे-धीरे तालुमूलमें (विशुद्ध चक्रके अग्रभागमें) चढ़ा दे ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠। तदनन्तरदो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रोंको रोककर उस तालुमूलमें स्थित वायुको भौंहोंके बीच आज्ञाचक्रमें ले जाय⁠। यदि किसी लोकमें जानेकी इच्छा न हो तो आधी घड़ीतक उस वायुको वहीं रोककर स्थिर लक्ष्यके साथ उसे सहस्रारमें ले जाकर परमात्मामें स्थित हो जाय⁠। इसके बाद ब्रह्मरन्ध्रका भेदन करके शरीर-इन्द्रियादिको छोड़ दे ⁠।⁠।⁠२१⁠।⁠।

 परीक्षित्! यदि योगीकी इच्छा हो कि मैं ब्रह्म-लोकमें जाऊँ, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धोंके साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रह्माण्डके किसी भी प्रदेशमें विचरण करूँ तो उसे मन और इन्द्रियोंको साथ ही लेकर शरीरसे निकलना चाहिये ⁠।⁠।⁠२२⁠।⁠। योगियोंका शरीर वायुकी भाँति सूक्ष्म होता है⁠। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञानका सेवन करनेवाले योगियोंको त्रिलोकीके बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूपसे विचरण करनेका अधिकार होता है⁠। केवल कर्मोंके द्वारा इस प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ⁠।⁠।⁠२३⁠।⁠। 

परीक्षित्! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णाके द्वारा जब ब्रह्मलोककेलिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाशमार्गसे अग्निलोकमें जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं⁠। इसके बाद वह वहाँसे ऊपर भगवान् श्रीहरिके शिशुमार नामक ज्योतिर्मय चक्रपर पहुँचता है ⁠।⁠।⁠२४⁠।⁠।

भगवान् विष्णुका यह शिशुमार चक्र विश्व-ब्रह्माण्डके भ्रमणका केन्द्र है⁠। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीरसे वह अकेला ही महर्लोकमें जाता है⁠। वह लोक ब्रह्मवेत्ताओंके द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले देवता विहार करते रहते हैं ⁠।⁠।⁠२५⁠।⁠। फिर जब प्रलयका समय आता है, तब नीचेके लोकोंको शेषके मुखसे निकली हुई आगके द्वारा भस्म होते देख वह ब्रह्मलोकमें चला जाता है, जिस ब्रह्मलोकमें बड़े-बड़ेसिद्धेश्वर विमानोंपर निवास करते हैं⁠। उस ब्रह्मलोककी आयु ब्रह्माकी आयुके समान ही दो परार्द्धकी है ⁠।⁠।⁠२६⁠।⁠। वहाँ न शोक है न दुःख, न बुढ़ापा है न मृत्यु⁠। फिर वहाँ किसी प्रकारका उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है⁠। वहाँ यदि दुःख है तो केवल एक बातका⁠। वह यही कि इस परमपदको न जाननेवाले लोगोंके जन्म-मृत्युमय अत्यन्त घोर संकटोंको देखकर दयावश वहाँके लोगोंके मनमें बड़ी व्यथा होती है ⁠।⁠।⁠२७⁠।⁠। सत्यलोकमें पहुँचनेके पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीरको पृथ्वीसे मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणोंका भेदन करता है⁠। पृथ्वीरूपसे जलको और जलरूपसे अग्निमय आवरणोंको प्राप्त होकर वह ज्योतिरूपसे वायुरूप आवरणमें आ जाता है और वहाँसे समयपर ब्रह्मकी अनन्तताका बोध करानेवाले आकाशरूप आवरणको प्राप्त करता है ⁠।⁠।⁠२८⁠।⁠। इस प्रकार स्थूल आवरणोंको पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठानमें लीन होती जाती हैं⁠। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रामें, रसना रसतन्मात्रामें, नेत्र रूपतन्मात्रामें, त्वचा स्पर्शतन्मात्रामें, श्रोत्र शब्दतन्मात्रामें और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रियाशक्तिमें मिलकर अपने-अपने सूक्ष्मस्वरूपको प्राप्त हो जाती हैं ⁠।⁠।⁠२९⁠।⁠।इस प्रकार योगी पंचभूतोंके स्थूल-सूक्ष्म आवरणोंको पार करके अहंकारमें प्रवेश करता है⁠। वहाँ सूक्ष्म भूतोंको तामस अहंकारमें, इन्द्रियोंको राजस अहंकारमें तथा मन और इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवताओंको सात्त्विक अहंकारमें लीन कर देता है⁠। इसके बाद अहंकारके सहित लयरूप गतिके द्वारा महत्तत्त्वमें प्रवेश करके अन्तमें समस्त गुणोंके लयस्थान प्रकृतिरूप आवरणमें जा मिलता है ⁠।⁠।⁠३०⁠।⁠। परीक्षित्! महाप्रलयके समय प्रकृतिरूप आवरणका भी लय हो जानेपर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरूप होकर अपने उस निरावरण रूपसे आनन्दस्वरूप शान्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है⁠। जिसे इस भगवन्मयी गतिकी प्राप्ति हो जाती है उसे फिर इस संसारमें नहीं आना पड़ता ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠। परीक्षित्! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तरमें मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और क्रममुक्तिका तुमसे वर्णन किया⁠। पहले ब्रह्माजीने भगवान् वासुदेवकी आराधनाकरके उनसे जब प्रश्न किया था, तब उन्होंने उत्तरमें इन्हीं दोनों मार्गोंकी बात ब्रह्माजीसे कही थी ⁠।⁠।⁠३२⁠।⁠। संसारचक्रमें पड़े हुए मनुष्यके लिये जिस साधनके द्वारा उसे भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है ⁠।⁠।⁠३३⁠।⁠। भगवान् ब्रह्माने एकाग्रचित्तसे सारे वेदोंका तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धिसे यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्यप्रेम प्राप्त हो वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है ⁠।⁠।⁠३४⁠।⁠। समस्त चर-अचर प्राणियोंमें उनके आत्मारूपसे भगवान् श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान करानेवाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं ⁠।⁠।⁠३५⁠।⁠। परीक्षित्! इसलिये मनुष्योंको चाहिये कि सब समय और सभी स्थितियोंमें अपनी सम्पूर्ण शक्तिसे भगवान् श्रीहरिका ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें ⁠।⁠।⁠३६⁠।⁠। राजन्! संत पुरुष आत्मस्वरूपभगवान्‌की कथाका मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कानके दोनोंमें भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदयसे विषयोंका विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ⁠।⁠।⁠३७⁠।⁠।

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