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विराट्स्वरूपका वर्णन

 ध्यान-विधि और भगवान्‌के विराट्स्वरूपका वर्णन

राजेन्द्र! जो गृहस्थ घरके काम-धंधोंमें उलझे हुए हैं, अपने स्वरूपको नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करनेकी रहती हैं ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠।
 उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है⁠। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसंगसे कटती है और दिन धनकी हाय-हाय या कुटुम्बियोंके भरण-पोषणमें समाप्त हो जाता है ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। 
संसारमें जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं हैं, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोहमें ऐसा पागल-सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्युका ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। 
इसलिये परीक्षित्! जो अभय पदको प्राप्तकरना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी ही लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠। 

मनुष्य-जन्मका यही—इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो—ज्ञानसे, भक्तिसे अथवा अपने धर्मकी निष्ठासे जीवनको ऐसा बना लिया जाय कि मृत्युके समय भगवान्‌की स्मृति अवश्य बनी रहे ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠।

परीक्षित्! जो निर्गुण स्वरूपमें स्थित हैं एवं विधि-निषेधकी मर्यादाको लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी प्रायः भगवान्‌के अनन्त कल्याणमय गुणगणोंके वर्णनमें रमे रहते हैं ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠।

परीक्षित्‌ने पूछा—ब्रह्मन्! धारणा किस साधनसे किस वस्तुमें किस प्रकार की जाती है और उसका क्या स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्यके मनका मैल मिटा देती है? ⁠।⁠।⁠२२⁠।⁠।


 श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धिके द्वारा मनको भगवान्‌के स्थूलरूपमें लगाना चाहिये ⁠।⁠।⁠२३⁠।⁠। 
यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा—सब-का-सब जिसमें दीख पड़ता है वही भगवान्‌का स्थूल-से-स्थूल और विराट् शरीर है ⁠।⁠।⁠२४⁠।⁠।

जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्डशरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान् हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी धारणा की जाती है ⁠।⁠।⁠२५⁠।⁠।

 तत्त्वज्ञ पुरुष उनका इस प्रकार वर्णन करते हैं—पाताल विराट् पुरुषके तलवे हैं, उनकी एड़ियाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ—एड़ीके ऊपरकी गाँठें महातल हैं, उनके पैरके पिंडे तलातल हैं, ⁠।⁠।⁠२६⁠।⁠।
 विश्व-मूर्तिभगवान्‌के दोनों घुटने सुतल हैं, जाँघें वितल और अतल हैं, पेड़ू भूतल है और परीक्षित्! उनके नाभिरूप सरोवरको ही आकाश कहते हैं ⁠।⁠।⁠२७⁠।⁠।
 आदिपुरुष परमात्माकी छातीको स्वर्गलोक, गलेको महर्लोक, मुखको जनलोक और ललाटको तपोलोक कहते हैं⁠। उन सहस्र सिरवाले भगवान्‌का मस्तकसमूह ही सत्यलोक है ⁠।⁠।⁠२८⁠।⁠। इन्द्रादि देवता उनकी भुजाएँ हैं⁠। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय हैं⁠। दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासिकाके छिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ⁠।⁠।⁠२९⁠।⁠।
तरह-तरहके पक्षी उनके अद्‌भुत रचना-कौशल हैं⁠। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनुकी सन्तान मनुष्य उनके निवासस्थान हैं⁠। गन्धर्व, विद्याधर, चारण औरभगवान् विष्णुके नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उनमें देखनेकी शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रह्मलोक है⁠। तालु जल है और जिह्वा रस ⁠।⁠।⁠३०⁠।⁠। वेदोंको भगवान्‌का ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं और यमको दाढ़ें⁠। सब प्रकारके स्नेह दाँत हैं और उनकी जगन्मोहिनी मायाको ही उनकी मुसकान कहते हैं⁠। यह अनन्त सृष्टि उसी मायाका कटाक्ष-विक्षेप है ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠। लज्जा ऊपरका होठ और लोभ नीचेका होठ है⁠। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है⁠। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समुद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं ⁠।⁠।⁠३२⁠।⁠। राजन्! विश्वमूर्ति विराट् पुरुषकी नाड़ियाँ नदियाँ हैं⁠। वृक्ष रोम हैं⁠। परम प्रबल वायु श्वास है⁠। काल उनकी चाल है और गुणोंका चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠।परीक्षित्! बादलोंको उनके केश मानते हैं⁠। सन्ध्या उन अनन्तका वस्त्र है⁠। महात्माओंने अव्यक्त (मूलप्रकृति)-को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारोंका खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है ⁠।⁠।⁠३४⁠।⁠। 
महत्तत्त्वको सर्वात्मा भगवान्‌का चित्त कहते हैं और रुद्र उनके अहंकार कहे गये हैं⁠। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं⁠। वनमें रहनेवाले सारे मृग और पशु उनके कटिप्रेदशमें स्थित हैं ⁠।⁠।⁠३५⁠।⁠। अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरोंकी स्मृति हैं⁠। दैत्य उनके वीर्य हैं ⁠।⁠।⁠३६⁠।⁠। ब्राह्मण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुषके चरण हैं⁠। विविध देवताओंके नामसे जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं ⁠।⁠।⁠३७⁠।⁠। परीक्षित्! विराट्भगवान्‌के स्थूलशरीरका यही स्वरूप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया⁠। इसीमें मुमुक्षु पुरुष बुद्धिके द्वारा मनको स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है ⁠।⁠।⁠३८⁠।⁠।
 

जैसे स्वप्न देखनेवाला स्वप्नावस्थामें अपने-आपको ही विविध पदार्थोंके रूपमें देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियोंके द्वारा सब कुछ अनुभव करनेवाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है⁠। उन सत्यस्वरूप आनन्दनिधि भगवान्‌का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तुमें आसक्ति नहीं करनी चाहिये⁠। क्योंकि यह आसक्ति जीवके अधःपतनका हेतु है ⁠।⁠।⁠३९⁠।⁠।

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