सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

9ब्रह्माजीका भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवतका उपदेश

 ब्रह्माजीका भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवतका उपदेश 

ब्रह्माजीने कहा—भगवन्! आप समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें साक्षीरूपसे विराजमान रहते हैं⁠। आप अपने अप्रतिहत ज्ञानसे यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ ⁠।⁠।⁠२४⁠।⁠। नाथ! आप कृपा करके मुझ याचककी यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूपरहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपोंको जान सकूँ ⁠।⁠।⁠२५⁠।⁠। आप मायाके स्वामी हैं, आपका संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता⁠। जैसे मकड़ी अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी मायाका आश्रय लेकर इस विविध-शक्तिसम्पन्न जगत्‌की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेके लिये अपने-आपको ही अनेक रूपोंमें बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं⁠। इस प्रकार आप कैसे करते हैं—इस मर्मको मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये ⁠।⁠।⁠२६-२७⁠।⁠। आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानीसे आपकी आज्ञाका पालन कर सकूँ और सृष्टिकी रचना करते समय भी कर्तापन आदिके अभिमानसे बँध न जाऊँ ⁠।⁠।⁠२८⁠।⁠। प्रभो! आपने एक मित्रके समान हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है⁠। अतः जब मैं आपकी इस सेवा—सृष्टिरचनामें लगूँ और सावधानीसे पूर्वसृष्टिके गुण-कर्मानुसार जीवोंका विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपनेको जन्म-कर्मसे स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ⁠।⁠।⁠२९⁠।⁠।श्रीभगवान्‌ने कहा—अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनोंसे युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो ⁠।⁠।⁠३०⁠।⁠। मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैं—मेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠। सृष्टिके पूर्व केवल मैं-ही-मैं था⁠। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान⁠। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमेंजो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ⁠।⁠।⁠३२⁠।⁠। वास्तवमें न होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मामें दो चन्द्रमाओंकी तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है अथवा विद्यमान होनेपर भी आकाश-मण्डलके नक्षत्रोंमें राहुकी भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये ⁠।⁠।⁠३३⁠।⁠। जैसे प्राणियोंके पंचभूतरचित छोटे-बड़े शरीरोंमें आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश करते भी हैं और पहलेसे ही उन स्थानों और रूपोंमें कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियोंके शरीरकी दृष्टिसे मैं उनमें आत्माके रूपसे प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ⁠।⁠।⁠३४⁠।⁠। यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं—इस प्रकार निषेधकी पद्धतिसे, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है—इस अन्वयकी पद्धतिसे यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्त्व हैं⁠। जो आत्मा अथवा परमात्माका तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जाननेकी आवश्यकता है ⁠।⁠।⁠३५⁠।⁠। ब्रह्माजी! तुम अविचल समाधिके द्वारा मेरे इस सिद्धान्तमें पूर्ण निष्ठा कर लो⁠। इससे तुम्हें कल्प-कल्पमें विविध प्रकारकी सृष्टिरचना करते रहनेपर भी कभी मोह नहीं होगा ⁠।⁠।⁠३६⁠।⁠।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

1/19अंत समय क्या करें?

 अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् ⁠।             पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ⁠।⁠।⁠३७              आप योगियोंके परम गुरु हैं, इसलिये मैं आपसे परम सिद्धिके स्वरूप और साधनके सम्बन्धमें प्रश्न कर रहा हूँ⁠। जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये? ⁠।⁠।⁠३७⁠।⁠। अंत समय में क्या करें? अंत समय में वह करें जो अगले दिन करना है, भविष्य में करना है,प्रलय समाप्त होने के बाद करना है। राजा सत्यव्रत ने अंत समय में जो किया वह अगले मन्वंतर में उसको करना पड़ा। सोते वक्त व्यक्ति जो सोचता है दूसरे दिन सुबह वही विचार शुरू होते हैं,इसलिए अंत समय में वह करें जो अगले दिन अगले जन्म में करना है। राजा परीक्षित ने अंत समय में क्या किया? अथो विहायेमममुं च लोकं विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात् ⁠। कृष्णाङ्घ्रिसेवामधिमन्यमान उपाविशत् प्रायममर्त्यनद्याम् ⁠।⁠।⁠५ या वै लसच्छ्रीतुलसीविमिश्र- कृष्णाङ्घ्रिरेण्वभ्यधिकाम्बुनेत्री ⁠। पुनाति लोकानुभयत्र सेशान् कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः ⁠।⁠।⁠६ इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः प्रायोपवे...

2ध्यान विधि

 भगवान्‌के स्थूल और सूक्ष्मरूपोंकी धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन  कोई-कोई साधक अपने शरीरके भीतर हृदया-काशमें विराजमान भगवान्‌के प्रादेशमात्र स्वरूपकी धारणा करते हैं⁠। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान्‌की चार भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠। उनके मुखपर प्रसन्नता झलक रही है⁠। कमलके समान विशाल और कोमल नेत्र हैं⁠। कदम्बके पुष्पकी केसरके समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं⁠। भुजाओंमें श्रेष्ठ रत्नोंसे जड़े हुए सोनेके बाजूबंद शोभायमान हैं⁠। सिरपर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानोंमें कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ⁠।⁠।⁠९⁠।⁠। उनके चरणकमल योगेश्वरोंके खिले हुए हृदयकमलकी कर्णिकापर विराजित हैं⁠। उनके हृदयपर श्रीवत्सका चिह्न—एक सुनहरी रेखा है⁠। गलेमें कौस्तुभमणि लटक रही है⁠। वक्षःस्थल कभी न कुम्हलानेवाली वनमालासे घिरा हुआ है ⁠।⁠।⁠१०⁠।⁠। वे कमरमें करधनी, अँगुलियोंमें बहुमूल्य अँगूठी, चरणोंमें नूपुर और हाथोंमें कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं⁠। उनके बालोंकी लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं⁠। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिल रहा है...