ŚB 10.87.16
इति तव सूरयस्त्र्यधिपतेऽखिललोकमल-क्षपणकथामृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहु: । किमुत पुन: स्वधामविधुताशयकालगुणा:परम भजन्ति ये पदमजस्रसुखानुभवम् ॥ १६ ॥
भगवान! लोग सत्व, रज,तम--इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावो या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परंतु भगवान तो उस मायानटी के स्वामी,उसको नचाने वाले हैं। इसीलिए विचारशील पुरुष भगवानके लीलाकथाके अमृत सागर में गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप-तापको धो - बहा देते हैं।क्यों न हो, भगवानकी लीला कथा सभी जीवो के मायामल को नष्ट करनेवाली जो है।
पुरुषोत्तम! जिन महापुरुषों ने आत्मज्ञान के द्वारा अंतः करण के राग-द्वेष आदि और शरीर के काल कृत जरा-मरण आदि दोष मिटा दिए हैं और निरंतर भगवानके उस स्वरूप की अनुभूति में मग्न रहते हैं, जो अखंड आनंद स्वरूप है, उन्होंने अपने पाप-तापोंको सदा के लिए शांत, भस्म कर दिया है--इसके विषय में तो कहना ही क्या है।
"सारे वेद भगवानके सदगुणोंका वर्णन करते हैं।इसलिए संसारके सभी विद्वान भगवानके मंगलमय कल्याणकारी गुणोंके श्रवण स्मरण आदि के द्वारा भगवानसे ही प्रेम करते हैं, और भगवानके चरणों का स्मरण करके संपूर्ण क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं।"
Therefore, O master of the three worlds, the wise get rid of all misery by diving deep into the nectarean ocean of topics about You, which washes away all the contamination of the universe. Then what to speak of those who, having by spiritual strength rid their minds of bad habits and freed themselves from time, are able to worship Your true nature, O supreme one, finding within it uninterrupted bliss?
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