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2ध्यान विधि

 भगवान्‌के स्थूल और सूक्ष्मरूपोंकी धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन 

कोई-कोई साधक अपने शरीरके भीतर हृदया-काशमें विराजमान भगवान्‌के प्रादेशमात्र स्वरूपकी धारणा करते हैं⁠। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान्‌की चार भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠। उनके मुखपर प्रसन्नता झलक रही है⁠। कमलके समान विशाल और कोमल नेत्र हैं⁠। कदम्बके पुष्पकी केसरके समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं⁠। भुजाओंमें श्रेष्ठ रत्नोंसे जड़े हुए सोनेके बाजूबंद शोभायमान हैं⁠। सिरपर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानोंमें कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ⁠।⁠।⁠९⁠।⁠। उनके चरणकमल योगेश्वरोंके खिले हुए हृदयकमलकी कर्णिकापर विराजित हैं⁠। उनके हृदयपर श्रीवत्सका चिह्न—एक सुनहरी रेखा है⁠। गलेमें कौस्तुभमणि लटक रही है⁠। वक्षःस्थल कभी न कुम्हलानेवाली वनमालासे घिरा हुआ है ⁠।⁠।⁠१०⁠।⁠। वे कमरमें करधनी, अँगुलियोंमें बहुमूल्य अँगूठी, चरणोंमें नूपुर और हाथोंमें कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं⁠। उनके बालोंकी लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं⁠। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिल रहा है ⁠।⁠।⁠११⁠।⁠। लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवनसे शोभायमान भौंहोंके द्वारा वे भक्तजनोंपर अनन्त अनुग्रहकी वर्षा कर रहे हैं⁠। जबतक मन इस धारणाके द्वारा स्थिर न हो जाय,तबतक बार-बार इन चिन्तनस्वरूप भगवान्‌को देखते रहनेकी चेष्टा करनी चाहिये ⁠।⁠।⁠१२⁠।⁠।भगवान्‌के चरण—कमलोंसे लेकर उनके मुसकानयुक्त मुखकमलपर्यन्त समस्त अंगोंकी एक-एक करके बुद्धिके द्वारा धारणा करनी चाहिये⁠। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा⁠। जब एक अंगका ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोड़कर दूसरे अंगका ध्यान करना चाहिये ⁠।⁠।⁠१३⁠।⁠। ये विश्वेश्वर भगवान् दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं⁠। सगुण, निर्गुण—सब कुछ इन्हींका स्वरूप है⁠। जबतक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय तबतक साधकको नित्य-नैमित्तिक कर्मोंके बाद एकाग्रतासे भगवान्‌के उपर्युक्त स्थूलरूपका ही चिन्तन करना चाहिये ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠।

जब योगी पुरुष इस मनुष्यलोकको छोड़ना चाहे तब देश और कालमें मनको न लगाये⁠। सुखपूर्वक स्थिर आसनसे बैठकर प्राणोंको जीतकर मनसे इन्द्रियोंका संयम करे ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠। तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धिसे मनको नियमित करके मनके साथ बुद्धिको क्षेत्रज्ञमें और क्षेत्रज्ञको अन्तरात्मामें लीन कर दे⁠। फिर अन्तरात्माको परमात्मामें लीन करके धीर पुरुष उस परम शान्तिमय अवस्थामें स्थित हो जाय⁠। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠।इस अवस्थामें सत्त्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या है⁠। अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृतिका भी वहाँ अस्तित्व नहीं है⁠। उस स्थितिमें जब देवताओंके नियामक कालकी भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं? ⁠।⁠।⁠१७⁠।⁠। योगीलोग ‘यह नहीं, यह नहीं’—इस प्रकार परमात्मासे भिन्न पदार्थोंका त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थोंमें आत्मबुद्धिका त्याग करके हृदयके द्वारा पद-पदपर भगवान्‌के जिस परम पूज्य स्वरूपका आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेमसे परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान् विष्णुका परम पद है—इस विषयमें समस्त शास्त्रोंकी सम्मति है ⁠।⁠।⁠१८⁠।⁠।

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